धरा
धधक उठी अम्बर में गर्जन घोर हुआ
आज
कुरुक्षेत्र के रण में पंचत्व समर शेर हुआ
जिस
प्रचण्ड को अपने भुजदण्ड पर गुमान था
वह
कौरवों नही, पांडवों का भी अभिमान था
छुप गया दिवाकर रुदन करते
जलधर के पीछे
और
कुंठित मन से अश्रुपूरित नयनों को मीचे
पागलों
की तरह सुयोधन रणभूमि में भागा
जिसके
दम पर था उसने महासमर को साधा
प्रकृति
स्तब्ध हो उठी, अरे! यह क्या हो गया
समरांगन
में आज यह शूरवीर कैसे सो गया
जिसे
युद्ध में जीतना किसी के वश में न था
जिसके
प्राण हरने की शक्ति किसी के वक्ष में था
कोई
न सोचा कि अंगराज मारा जायेगा रण में
जिसकी
वीरता के नगाड़े बजते थे सारे भुवन में
कोई
न जाने इस महासमर का क्या हाल होता
यदि
इस संसार मे जीवित राधा का लाल होता
उस
धनुर्धारी का जन्म हुआ था कभी न हारने को
वह
दानवीर जन्म लिया था लोगों को तारने को
सृष्टि
को दीन हीन करके वह धर्मवीर चला गया
वह
शूरवीर वह कर्मवीर सारे सृष्टि को रुला गया
वह
रथ का पहिया था, या था राधेय का काल
पार्थ
का शर सर से निकला गिरा काटकर भाल
धू-धूकर
जल उठा समर, जब राधेय का भाल गिरा
मित्र ऋण चूका रणभूमि में पार्थ का काल गिरा
यह
कैसी विडम्बना, भाई खुश है भाई को मारकर
वह
मित्रनिष्ठ, वह सत्यनिष्ठ, अमर हो गया हारकर
हाय
रे पार्थ, तू न जाने यथार्थ, यह क्या कर गया
आज
रण में तेरा बाण तेरे भाई को ही मार गया
कुंती
की यह कैसी विवशता जो हँस सके, न रो सके
कुरुक्षेत्र
के आँगन में मरा सुत, माँ भला कैसे सो सके
माँ
का मन सिसकता है और एक टिस-सी उठती है
उस
वीर की यश गाथा दसों दिशाओं में गूंजती है
राधेय,
मित्र की खातिर रणभूमि में प्राण दिया
वह
निश्छल, पवित्र मित्रता का पहचान दिया
वह
कौन्तेय, जो शुद्र के नाम अनादर पाता रहा
क्षत्रिय
समूह में रोज तिल-तिल कर मरता रहा
जिसके
रगों में क्षत्रिय का रक्त और शुद्र का क्षीर था
वह
जन्म से क्षत्रिय और प्रकृति से दानवीर था
वह
राधेय, वह कौन्तेय, वह महावीर सुर्यपुत्र था
वह
रश्मिरथी, वह महारथी, वह योद्धा विचित्र था
उस
भुजबल का ललाट सूर्य-सा चमक रहा था
आज
उसकी काया सुमन-सा महक रहा था
जब
सुयोधन ने अपने मस्तक का ताज दिया
जय-जयकार गूंजा जब अंगदेश का राज दिया
जिसने
कवच-कुंडल सुरपति को दान दिया
माता
कुंती को पांच पुत्रों का वरदान दिया
वह
दानवीर जो श्रापित जीवन पलता रहा
जो
जाति-गोत्र के नाम अनल में जलता रहा
जिसे
भगवान कृष्ण का प्रलोभन भी न डिगा सका
इन्द्रप्रस्थ
का मुकुट और सिंहासन भी न लुभा सका
वह धर्मज्ञ कृतज्ञता
का महान कृति स्थापित कर गया
उसका
जीवन सुकर्मों के यश और कृति से भर गया
आज
वह वीर चला बैठकर मृत्युपति के रथ पर
जो
जीवन भर चलता रहा अपने धर्म के पथ पर
जिसने
लाख प्रलोभनों के बाद भी न रण छोड़ा
वह
सुर्यपुत्र अपने कर्तव्यों से कभी न मुख मोड़ा
वसुधा
वीर विहीन हो गई जब युद्ध में मरा कर्ण
मरकर
भी अमर हो गया वह सत्य का रथी कर्ण
इस
धरती के भाग्य में अब और न होगा कभी कर्ण
युगों
युगों तक स्मरण करेगे तुम्हे हे दानवीर कर्ण
-एस.
के कश्यप (कलम का दरोगा)
रचनाकार-
मेरी उड़ान
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