Tuesday, 6 August 2024

CISF गीत (CISF GEET)

 

हम है केन्द्रीय औधोगिक सुरक्षा बल

निडर- निर्भीक, अडिग और अविचल

हमें गर्व है कि हम इस बल के अंग है

इससे ही हमारे जीवन में फैला रंग है

 

संरक्षण व सुरक्षा हमारा नारा है

भारत हमको जान से भी प्यारा है

उत्कृष्टता का ध्वज सदा हमारे संग है

हमारी विशिष्टता का यह उठता तरंग है

 

हम देश के प्रहरी है सीना तान खड़े

 देश की रक्षा खातिर बन तूफान खड़े

हम संवेदनशील उपक्रमों के रखवाले है

हम विरासत और धरोहरों को सम्हाले है

 

बंदरगाह हो या एयरपोर्ट सुरक्षा का उदेश्य

सुरक्षा सहित लोक सेवा का देते है सन्देश

जब हो आपदा या हो विशिष्टजनों की बात

हम हमेशा साथ खड़े है दिन हो या रात

 

उतर-दक्षिण,पूरब-पश्चिम हम है चारो ओर

देश के औधोगिक सुरक्षा का थामे है हम डोर

राजधानी की जीवन रेखा के हम निगहेवान है

परमाणु व अन्तरिक्ष विकास की पहचान है

 

नक्सल का घर हो या आतंक का साया

या हो दुर्गम क्षेत्र या पूर्वोत्तर की माया

देश के खातिर सदा ही तत्पर पाया है

अपनी कविलियत से परचम लहराया है

 -एस. के. कश्यप (कलम का दरोगा) 

 

 

 

 

 

लाल साड़ी (LAL SAARI)

 

अपनी नियति की डोर से बंधा गोपी अपनी माँ को लाल साड़ी दिलाने के खातिर 25 वर्षों तक अपने घर-परिवार, माता-पिता से दूर रहा क्योंकि वह अपने घर का रास्ता भूल गया था ।  यह महज एक संयोग नहीं बल्कि हमारे समाज की बिडम्बना है, जहाँ आज भी सामंतवादी ताकतें अपना पैर पसारे आम लोगों का शोषण कर रहा है । दुनिया से बेखबर तथा छल-कपट से अनभिज्ञ एक 10 वर्षीय गरीब लड़का गोपी अपने माता-पिता और एक छोटा भाई धर्म के साथ अपने गाँव में रहता था । पिताजी मजदूर थे, घर की आर्थिक स्थिति इतनी अच्छी नहीं थी कि गोपी को पढ़ाया-लिखाया जा सके । गोपी बहुत ही सृजनात्मक, महत्वाकांक्षी तथा साहसी था । वह बहुत ही सुन्दर और सुरीला बाँसुरी बजाता था, जिसे देख उसके माता-पिता खुशी से फुले न समाते थे । उसकी बाँसुरी की धुन से उसके माता-पिता के दिनभर का थकान दूर हो जाती थी ।

एक बार महत्वाकांक्षी गोपी ने अपनी माँ को चुड़ी और साड़ी दिलाने के खातिर गाँव के ठाकुर से काम माँगने गया क्योंकि गोपी के पास इतने पैसे नहीं थे कि वह अपनी माँ को लाल काँच की चुड़ी और लाल साड़ी दिला सके । ठाकुर ने उसे काम पर तो रख लिया परंतु जब गोपी अपनी खून-पसीने की कमाई माँगने गया तो ठाकुर ने खाना-पिना आदि की दुहाई देते हुए उसके हाथ में दस रुपया रख दिया । फिर भी गोपी खुश था और वह खुशी-खुशी बाजार जाकर माँ के लिए लाल काँच की चूड़ियाँ खरीद लाया । अखबार में लिपटी काँच की चुड़ियों को जैसे ही माँ के हाथ में रखा तो माँ की खुशी का ठिकाना न रखा, वह गोपी को लख-लख दुआएं और आशीर्वाद देती रही । तब गोपी ने अपनी माँ से कहा कि वह ठाकुर से  अपनी मजदूरी का बचा हुआ पैसा मांगकर वह उसके लिए लाल साड़ी लाएगा ।  गोपी की बातों से माँ के चेहरे पर एक संतोष का भाव बिखरा था ।

कुछ दिन बाद (तब तक तीन महीने हो चुके थे) गोपी फिर ठाकुर के पास गया और अपना मजदूरी माँगने लगा ।  परंतु ठाकुर में  फिर खाना-पिना आदि को दुहाई देते हुए मजदूरी देने से साफ़ मना कर दिया तथा उसे दुत्कारते हुए, यहाँ से भाग जाने को कहा । गरीब गोपी ठाकुर की फटकार सुन उसकी शिकायत करने गाँव से सटे  पुलिस थाना पहुँचा, परंतु दरोगा ने उसे बिना किसी आपसी अनुबंध के कागजात आदि दस्तावेजों का हवाला देते हुए वापस कर दिया । अपनी खून-पसीने की कमाई तथा माँ की लाल साड़ी दिलाने खातिर वह फिर ठाकुर से अपनी मजदूरी माँगने गया, इस पर ठाकुर तथा उसके गुर्गों ने गोपी के साथ मारपीट किया । इस पर गोपी फिर पुलिस थाना गया, परंतु इस बार दरोगा ने मारपीट के साक्ष्य के आधार पर मुकदमा दर्ज करते हुए ठाकुर को गिरफ्तार किया। परंतु ठाकुर अपनी पहुँच तथा पैसे के दम पर एक दिन में ही जमानत पर रिहा हो गया । अपनी बेइज्जती तथा गिरफ्तारी से बौखलाए ठाकुर गरीब दस वर्षीय गोपी को मारने के लिए पागलों की तरह खोजने लगा। जब इसकी भनक गोपी को लगी तो वह बिना कुछ सोचे-समझे अपने गाँव से भाग गया । भागा भी तो ऐसा भागा कि वह 25 वर्षों तक वापस नही आया । उसे जो बस, जो ट्रेन मिला उससे भागता ही रहा, कई दिनों तक पैदल चला. उसे कुछ पता नही कि वह कहाँ जा रहा है, किधर जा रहा है क्योंकि गोपी को अपने गाँव के अलावा कुछ पता नही था, ना क़स्बा, ना जिला और ना ही राज्य । दुनिया के क्षल-कपट से बेखर मासूम गोपी जो कभी स्कूल तक नही गया, वह शहर-शहर भटकता रहा ।  वह अपने गाँव के नाम के अलावा कुछ भी नही बता पा रहा था और लोगों को उसका गाँव मालूम नही था । शिक्षा और जागरूकता के आभाव से ग्रसित गोपी को कुछ भी पता नही था कि उसे कहाँ जाना है, किसके पास जाना है. उसे मालूम ही नही था कि वह अपना गाँव कैसे लौटे. इसी जदोजहद में वह दर-दर भटकता रहा, हर उस आदमी से पूछा, जिससे उसे लगा कि शायद इससे मेरे गाँव का पता मिल सकता हो. बहुत विकट समस्या में फँस गया था गोपी, न उसे घर का पता मिल रहा था, न उसे खाने का ठिकाना मिल रहा था और न ही उसे रहने का । इसी भटकती जिंदगी में किसी प्रकार वह एक साड़ी मील में काम मिल गया. उस साड़ी मील से माँ को लाल साड़ी दिलाने की लालसा को मानों हवा लग गई हो, उसकी ज्वाला तेज़ हो गई थी. वह रोज घर जाने की उम्मीद में तिल-तिल कर मर रहा था पर उसे कोई उसका घर का रास्ता बता नही रहा था. घर-द्वार, माँ-बाप, भाई, सब को याद कर सिसक-सिसक कर रोता था, पर उसकी सिसकियाँ के प्रतिउत्तर में कुछ नही मिल पा रहा था.

इसी बीच मझधार में एक तिनके का सहारा बनकर विकास उसकी ज़िन्दगी में आया, जो एक मजदूर था और दोनों साथ में काम करते थे. वह गोपी से मानवता के नाते जुड़ गया, जिसे गोपी भैया कहता था, दोनों में भाइयों जैसा प्यार था. कालांतर में विकास को काम के सिलसिले में अंडमान निकोबार जाना था. अब गोपी के लिए बड़ी मुश्किल खड़ी हो गई कि वह क्या करे. क्योंकि इस भरी दुनिया में उसका विकास के अलावा कोई नही था. विकास उसे अंडमान ले जाना चाहता था. परन्तु अपने घर जाने की चाहत में वह जाना नही चाहता था. वह यही सोच रहा था कि जब इस शहर में मुझे घर जाने का पता नही मिल रहा है तो उस बीच समुन्द्र से कैसे घर जा पाएगा, वहाँ तो और भी उलझ कर रह जायेगा, पर नियति को कुछ और ही मंजूर था. खैर विकास के बार-बार कहने पर वह अंडमान जाने के लिए तैयार हो गया. अंडमान पहुँच कर विकास अपने काम में लग गया और गोपी एक फैक्ट्री के कैंटीन में काम करने लगा. नियत्ति ने फिर एक खेल खेला और अंडमान में सुनामी की त्रासदी ने सबकुछ लील लिया. जिसमे सबकुछ बर्बाद हो गया, सबकुछ तबाह हो गया. ऐसा मंजर था मानो पहले यहाँ पर कुछ था हि नही. इस त्रासदी में गोपी और विकास बिछड़ गए, विकास का कुछ पता नही चला. गोपी को घायल अवस्था में एक अस्पताल भर्ती कराया गया, जहाँ उसका इलाज काफी दिनों तक चला. गोपी जब विकास के बारे में जाना तो उसके पैर तले जमीन खिसक गई. वह दहाड़े मार-मार कर रोने लगा क्योंकि इस अंजान दुनिया में विकास ही तो था उसका अपना, जिसे वह भैया बुलाता था, अपनी दिल की सारी बातें कहता था.

गोपी की किश्ती एक बार फिर बीच मझधार में फस गई थी. एक तिनके का सहारा था वह भी चला गया. रोता-बिलखता गोपी अपने दिन ऐसे ही बिताता रहा. इस तबाही में फैक्ट्री और कैंटीन सब तबाह हो चुका था. फिर एक तिनके का सहारा बनकर भूषण आया जो उस फैक्ट्री में ड्राईवर का काम करता था, वह गोपी को अपने घर में बकरियाँ चराने के लिए रख लिया. तब तक गोपी की उम्र 15 वर्ष का हो चुका था, इसी तरह बकरियाँ चराते-चराते अब गोपी 35 वर्ष का हो गया.  गोपी रोज़ सुबह बकरियाँ चराने ले जाता और शाम को वापस आ जाता. इस सुबह से शाम तक बकरियाँ चराने में दो खास बात थी, एक तो उसका रोज बाँसुरी बजाते हुए बकरियाँ चराना और दूसरा रास्ते में पड़ने वाला पुलिस ट्रेनिंग स्कूल के सामने से रोज गुजरना. गोपी रोज सुबह बाँसुरी बजाते हुए घर से बकरियाँ लेकर निकलता और उस पुलिस ट्रेनिंग स्कूल के गेट से गुजरते हुए जंगल की ओर जाता था और फिर शाम को उसी रास्ते से बाँसुरी बजाते वापस आ जाता था. पुलिस ट्रेनिंग स्कूल के गेट का ड्यूटी पर तैनात पुलिस का एक जवान अर्जुन दीक्षित, गोपी को बहुत दिनों से गौर कर रहा था और गोपी की बाँसुरी की मधुर धुन में खो जाता था. उसे दिन में दो बार आते-जाते गोपी की बाँसुरी की मधुर धुन सुनने को मिलता था. धीरे-धीरे गोपी और अर्जुन दीक्षित की पहचान बढ़ने लगी, कभी पानी पीने के बहाने तो कभी किसी न किसी बहाने दोनों में बातें होती रहती थी. फिर जब अर्जुन दिक्षित गोपी के बारे में जानना चाहा तो गोपी ने अपनी सारी कहानियाँ बताई कि कैसे वह अपनी माँ के लिए लाल काँच की चूड़ियाँ और लाल साड़ी खरीदना चाहता था. कैसे ठाकुर ने उसे मारा-पीटा, कैसे अपने गाँव से भाग कर शहर आ गया, कैसे विकास से मिला, कैसे अंडमान आ गया और कैसे वह सुनामी में मर कर बचा. फिर जब गोपी ने अर्जुन दीक्षित को बताया कि वह अपना घर का रास्ता नही जनता, उसे सिर्फ़ अपने गाँव का नाम याद है तो अर्जुन दीक्षित को विश्वास नही हुआ कि कोई भला अपने गाँव का रास्ता कैसे नही जानता होगा, कोई अपना घर का रास्ता कैसे भूल सकता है और तो और उसे इतना भी याद नही था की वह कितने साल से अपने घर से बाहर है. उसकी कहानी सुनने के बाद उसे समझ में आया कि कोई गरीब, अनपढ़, बेबस कैसे अपने घर से दूर हुआ और घर का रास्ता भूल गया. वह 25 वर्षों से अपने गाँव जाने का रास्ता ढूढ रहा है, हरेक उम्मीद से वह अपने घर का रास्ता पूछता रहा है. गोपी की कहानी सुनकर अर्जुन दीक्षित गहरी सोच में पड़ गया कि भला ऐसा कैसे किसी के साथ हो सकता है. तब उसने फैसला किया कि “गोपी बाँसुरी वाले” को उसका घर का पता ढूढने में उसकी मदद करेगा. फिर पहले तो गोपी से उसने जरुरी जानकारी जैसे गाँव का नाम, माता-पिता का नाम, भाई का नाम एकत्र किया, परन्तु वह इससे आगे क़स्बा, जिला आदि का नाम नही बता रहा था. फिर भी अर्जुन दीक्षित ने अपनी खोज शुरु किया.  इन्टरनेट, गूगल मैप, गूगल अर्थ, पोस्ट ऑफिस, पुलिस थाना, बैंक आदि के माध्यम से वह गोपी का गाँव का नाम तलाशने लगा, पर उसे कुछ हाथ नही लग रहा था. जहाँ एक ओर अर्जुन दीक्षित गोपी के घर का पता तलाश रहा था वही दूसरी ओर गोपी पुरानी बातों को यादकर फिर तड़पने लगा, उसकी रात का नींद और दिन का चैन सब खो गया था, उससे रोटियाँ तक नही खाई जा रही थी. अर्जुन दीक्षित की तलाश दिन पर दिन बढ़ती ही गई, फिर एक दिन अर्जुन दीक्षित की तलाश को दिशा मिलता है और वह गोपी के गाँव के बगल में स्थित एक बैंक का नाम और फ़ोन नंबर खोजता है, जहाँ वह एक बैंक कर्मचारी से बात करता है जो उसी गाँव का रहने वाला था. बातें करने पर उसे गोपी के बारे में जानकारी मिलती है कि कैसे गोपी के माँ-बाप उसे पागलों की तरह ढूढते रहे. अगले दिन सुबह वह बैंक कर्मचारी अर्जुन दीक्षित की बात गोपी के भाई धर्म से करवाता है तो अर्जुन दीक्षित ने गोपी के बारे में सारी जानकारी देते हुए बताता है कि गोपी अभी अंडमान में है. 

अगली सुबह अर्जुन दीक्षित गोपी को यह कहते हुए गोपी के हाथ में अपना फ़ोन पकड़ता है कि लो अपने भाई धर्म से बात करों. फ़ोन पर जैसे ही “गोपी भैया” शब्द सुनता है वैसे ही गोपी की आवाज रुंध सी जाती है और जैसे ही धर्म फ़ोन अपनी माँ को देता है तो बहुत देर से अपने आप को ढाढस बंधाये गोपी, उसकी ढाढस का बाँध टूट जाता है और आँखों से आँसू की नदियाँ बहने लगती है. रुंधी आवाज से वह कुछ बोल नही पा रहा था बस माँ-माँ का रट लगा रहा था. उधर अपने बेटे का रोज राह निहारती माँ की आँखे पथरा गई थी और आँसू तो कब का सुख चूका था, उस आँखों से फिर आँसू की धार फुट पड़ती है. गोपी की आवाज सुनकर माँ कुछ बोल नही पा रही थी, बस रोये जा रही थी. फिर माँ पूछती है कहा चला गया था तू बिटवा, तो गोपी कहता है हम खो गए थे माँ, रास्ता भूल गए थे. फिर दोनों रोने लगे, उस समय दोनों को ऐसा लग रहा था कि जैसे संसार की सारी खुशियाँ उनके दामन में भर गई है, अब कुछ भी बाकी नही रहा.

फिर अर्जुन दीक्षित ने गोपी को अपने घर जाने की तैयारी करता है, अर्जुन दीक्षित उसे कुछ कपडे और पैसे देता है और जाते-जाते अर्जुन दीक्षित की माँ गोपी को आवाज देती है और उसके हाथ में एक लाल साड़ी रख देती है और कहती है यह तुम्हारे माँ के लिए है, इसी साड़ी के लिए ठाकुर से लड़ पड़े थे न. गोपी अपने हाथों में 25 वर्ष बाद लाल साड़ी देखकर रोने लगता है और सोचता है कि उसे यह लाल साड़ी लाने में 25 वर्ष लग गए.

फिर गोपी अपने गाँव के लिए निकल जाता है जहाँ रेलवे स्टेशन पर उसे लेने उसका छोटा भाई धर्म आता है. धर्म गोपी के हाथ में बाँसुरी देखकर पहचान जाता है कि यही उसका गोपी भैया है. वर्षों के बिछड़े दोनों भाई इस तरह गले मिलते है जैसे भगवान राम अपने भाई भरत से मिल रहे हो. दोनों बार- बार गले मिलते है और एक-दुसरे को निहारते है.  फिर दोनों अपने गाँव की ओर निकल जाते है जहाँ ढोल-नगाड़ों के साथ गाँव वाले गोपी का इन्तजार कर रहे थे. गोपी के आते ही गाँव वाले उसे फूलों की माला पहनाते हुए कंधे पर उठा लेते है. लोगों की भीड़ जमा हो गई थी, सारी भीड़ गोपी को देख रही थी और उसका स्वागत कर रही थी और गोपी उस भीड़ में अपने बाबूजी को ढूढ रहा था, जिनका कुछ वर्ष पहले ही देहांत हो गया था. वह चारों तरफ अपनी नजर दौड़ा रहा था पर उसके बाबूजी कही नजर नही आ रहे थे. नम आँखों से वह अपनी माँ की तरफ बढ़ता है जहाँ उसकी माँ हाथ में लाठी लिए अपने आप को सम्हालती, अपने बेटे से मिलने के लिए भीड़ का हिस्सा बनी हुई थी. माँ से मिलकर गोपी लगातार रोये जा रहा था और माँ की आँसु भी न रुक रही थी, पर बाबूजी के बारे में सुनकर गोपी काफी विह्वल हो गया. परन्तु गोपी के मिलने की ख़ुशी उसके पुरे परिवार को हो रही थी. उधर अर्जुन दीक्षित को जब पता चला कि गोपी अपने परिवार को मिल गया तो उसने एक लम्बी सुकून भरी साँस ली और भगवान को धन्यवाद करता है.

-एस. के. कश्यप (कलम का दरोगा)

Wednesday, 10 November 2021

GHAR KI CHAUKHAT BULATI HAI (घर की चौखट बुलाती है)

 

हम दुनिया के भीड़ में कहाँ खो गए

रोटी की खातिर घर से दूर हो गए

सिसकती घर की चौखट बुलाती है

पर जिम्मेदारियाँ हमें दूर कराती है

 

कार्तिक महीने की दस्तक ने हम जैसे न जाने कितने बिहारियों की दिलों की धडकनें बढ़ा दी है, न जाने कितने का मन घबराने लगता है कि इस बार छुट्टी मिलेगी की नही. क्योंकि बिहार का महापर्व छठ आने वाला है जो हम बिहारियों की पहचान है. भगवान सूर्य को समर्पित छठ महापर्व बिहारियों के दिल में बसता है. यह महज एक पर्व नहीं है बल्कि हम लाखों-करोड़ो बिहारियों की भावनाएँ है जो हमें समाज, भाषा, संस्कृति और मिट्टी से जोड़े रखती है. इस भावना का मुल्यांकन नही किया जा सकता. यह लोक आस्था का सबसे महान महापर्व है. जिसके रज का कण-कण पवित्र होता है. हर एक चीज पवित्रता और शुद्धता की पराकाष्ठा को पार करती है. छठ पर्व से हमारी भावना, आस्था, श्रध्दा और निष्ठा छठ से जुड़ी होती है तथा इसके महत्त्व को लेखनी से उकेरना सम्भव नहीं है.

समय के साथ-साथ बहुत कुछ बदला है परन्तु छठ ही ऐसा महापर्व है जिसकी परम्परा नही बदला, सब कुछ वैसा का वैसा ही है, कुछ नही बदला. वही ठेकुआ की खुशबू, वही मिट्टी का चूल्हा, वही मिट्टी की वर्तन, वही सूप, वही दउरा, वही प्रसाद बनाने का तरीका, वही तीन दिन निर्जला व्रत, वही घाट, वही शुद्धता, वही पवित्रता, वही आस्था वही श्रध्दा और वही निष्ठा. माँ छठी की महिमा अपरम्पार है, माता का आशीष खातिर छठ व्रती तीन दिन तक कठिन निर्जला उपवास करती है. नेहाय-खाय से लेकर पारण तक माहौल भक्तिमय हो जाता है. इसमें उगते सूरज के साथ-साथ डूबते सूरज की भी पूजा की जाती है और छठ व्रती घर-समाज के साथ-साथ समस्त मानवजाति की कल्याण की कामना करती है. छठ व्रतियों से मिलने वाला आशीर्वाद छठी माता का आशीर्वाद माना जाता है. इसलिए इस पर्व में छठव्रतियों के आशीर्वाद का बड़ा महत्व है. इस पर्व में परिवार के सभी सदस्यों को एक साथ  जुटने या एकत्र होने की विशेष परम्परा है. सारा परिवार काम-धंधे छोड़कर अपने-अपने स्तर पर छठ पर्व की तैयारी में लग जाते है. इस भक्तिमय माहौल में शारदा सिन्हा का मधुर छठ गीत ऐसा लगता है जैसे प्राणों में अमृत घोल देती है. शारदा सिन्हा के गीत के बिना छठ पूजा पूरा होना असंभव सा लगता है.

अपने घर से दूर, अपना घर-द्वार, अपना समाज, अपनी मिट्टी, अपनी संस्कृति, अपनी भाषा, अपनों को छोड़कर पैसा कमाने खातिर बाहर आने वाले बिहारियों का दिन इस उधेरबुन में बितता है कि इस बार भी छठ पर छुट्टी मिलेगी कि नहीं. पूरा साल छठ का इंतजार करते रहते है, इस आस में की इस बार छठ पूजा पर घर जाउँगा. परन्तु उसे छुट्टी का डर सता रही होती है, अगर इस बार भी छुट्टी नहीं मिला तो क्या करेगें? मन में उठते लाखों सवाल के साथ माँ का सवाल मन में टिस मारती है कि “छठ पर घर आ रहे हो ना”. अगर छुट्टी नहीं मिली तो कुंठित मन से किसी कोने में सिसकते रहेगें और फिर उस भावना, उस अहसास को खो देंगे जो छठ पर्व से मिलती है.घर की चौखट बुलाती है जिससे मन बेचैन हो उठता है. कुछ समझ में नहीं आता क्या करे और कता न करें. ये बेचैनी, ये टिस दोनों तरफ होती है, माँ भी अपनी नम आँखों से नज़रे बिछाए अपने लाल का इंतज़ार करती है कि कब मेरा बेटा आएगा. छुट्टी की दिक्कतें नौकरी छोड़ने को मजबूर करती है परन्तु अगले ही पल घर की जिम्मेदारियों की तस्वीर सामने आते ही आँखें डब-डबा जाती है. घर नहीं जाने का दर्द बहुत ही कड़वा होता है. सारा दर्द समेटकर छुपाने की कोशिश करते है परन्तु सिसकियाँ बनकर बाहर आ जाती है. इस दर्द को वही महसूस सकता जिस पर कभी बिता हो, कभी माँ का प्यार, छठ का त्यौहार से वंचित रह गया हो. यह एक अहसास है, यह हमारी भावनाएँ है. जिसे कभी आका  नहीं जा सकता है, यह निःशब्द है. 

खुद को तसल्ली देने की कोशिश करते हुए कभी शारदा सिन्हा का छठ गीत सुन लेते है तो कभी तकिये में मुँह छुपाकर रो लेते है और मन हल्का कर लेते है. जो भावनाएँ दिल में उमड़ता है, उसकी कोई जगह नहीं ले सकता. वे लोग बहुत खुशनसीब होते है, जिसे छठ घर पर मनाने का सौभाग्य प्राप्त होता है. हमें घर की झिलमिलाहट, जगमगाहट बहुत याद आती है. यहाँ झिलमिलाहट तो है फिर भी फीका-फीका सा लगता है, यहाँ जगमगाहट तो है फिर भी खाली-खाली सा लगता है. ये अकेलापन हमें काटने को दौड़ता है. कभी तन्हाई मुँह चिढाती है तो कभी भावनाएँ आखों के रास्ते अपना जगह बना लेती है. पैसा कमाने के चक्कर में कुछ न कुछ तो कमी होती जा रही है. कभी होली छुट जाती तो कभी दिवाली छुट जाती है तो कभी छठ. हम घर-समाज से दूर होते जा रहे है, अपनों से दूर होते जा रहे है और हम शहर के चकाचौंध में खोते जा रहे है. 

लाख कोशिशों के बाद जब छुट्टी मिल जाती है तो मानो ऐसा लगता है जैसे सारा संसार सिमटकर मिट्ठी में आ गई हो जैसे हमने जंग जीत लिया हो क्योंकि ये छुट्टी अन्य छुट्टी से बिल्कुल भिन्न होता है. इसमे माँ का प्यार, पिता का दुलार और भाई-बहन का तकरार के साथ-साथ छठ की शुद्धता, पवित्रता, आस्था, श्रद्धा, निष्ठा और पुरे घर में पवित्रता का अहसास घोल देने वाली छठ का महाप्रसाद ठेकुआ की खुशबू समाहित होती है. छठ में छुट्टी मिलने का अर्थ होता है अपना समाज, संस्कृति, मिट्टी से जुड़ना और कोई नही चाहता कि हम इससे दूर रहे. छुट्टी मिलने पर लाखों सपने को आकृति मिल जाती है जो छुट्टी से पहले हमने सजाई थी.

नेहाय-खाय में गंगाजल या कुआँ के पानी से खाना या प्रसाद बनाने से लेकर खरना का प्रसाद पाने से लेकर छठ घाट पर दउरा ले जाने से लेकर पारण करने और समस्त प्रक्रियाओं में शुद्धता और पवित्रता के साथ बराबर हिस्सा लेना ही छठ माता के प्रति सच्ची आस्था और श्रद्धा का प्रतिक है. पारण के दिन घाट पर ठेकुआ खाते है और उसकी सोंधी-सोंधी खुशबू प्राणों में अमृत घोल देती है. छठ में जाना जरुरी इसलिए हो जाता है कि मानसिक, शारीरिक और वैचारिक रूप से शुद्ध करने वाला इस महापर्व में माँ से मिलने वाला आशीर्वाद छठी मैया का आशीर्वाद समझा जाता है. साक्षात् सूर्यदेव अपना आशीर्वाद प्रदान करते है. इसे शब्दों के माध्यम से व्यक्त नही किया जा सकता, बस इतना ही जान ले कि यह महापर्व अदभुत है, अद्वितीय है, अतुलनीय है. जब घर की चौखट बुलाती है और जाना जरुरी होता है.  

 

-एस के कश्यप (कलम का दरोगा)

Author- Meri Udaan

www.meriudaanpoem.blogspot.com

 

 

Sunday, 20 June 2021

पिता (PITA)

 

पिता शक्ति है पिता भक्ति है पिता स्वाभिमान है

पिता दुनिया में मेरी पहचान है पिता अभिमान है


जिसकी अंगुली थाम जीवन पथ पर चलना सिखा

जिसके कंधे पर बैठकर कभी ज़िन्दगी के मेले देखा


ये दुनिया का चकाचौंध चमक-धमक सब फीके है

पिता के कर्मपथ से लगता है सारी दुनिया नीचे है


जो अपने आँखों में हरपल मेरा ख्वाब सजाता रहा

मेरे भविष्य की खातिर हरपल सीढ़ियाँ बनाता रहा


उन सीढ़ियाँ से जीवन की ऊँचाइयों को छू सकूँ मैं

पिता के ख्वाबों को बुलंदियों तक ले जा सकूँ मैं


वह पिता मेरी परवरिश में अपनी जिंदगी खर्च दिया

खुद को उपेक्षित रखकर मुझे खुशियों से भर दिया


वह विधाता है वह गुरुर है वह मेरा सुपर हीरो है

वह मेरे जीवन का अनमोल अहसास है वह पिता है

एस के कश्यप (कलम का दरोगा)

Monday, 25 January 2021

कर्ण-वध (KARN-VADH)

धरा धधक उठी अम्बर में गर्जन घोर हुआ

आज कुरुक्षेत्र के रण में पंचत्व समर शेर हुआ

जिस प्रचण्ड को अपने भुजदण्ड पर गुमान था

वह कौरवों नही, पांडवों का भी अभिमान था

 

छुप गया दिवाकर रुदन करते जलधर के पीछे

और कुंठित मन से अश्रुपूरित नयनों को मीचे

पागलों की तरह सुयोधन रणभूमि में भागा

जिसके दम पर था उसने महासमर को साधा

 

प्रकृति स्तब्ध हो उठी, अरे! यह क्या हो गया

समरांगन में आज यह शूरवीर कैसे सो गया

जिसे युद्ध में जीतना किसी के वश में न था

जिसके प्राण हरने की शक्ति किसी के वक्ष में था

 

कोई न सोचा कि अंगराज मारा जायेगा रण में

जिसकी वीरता के नगाड़े बजते थे सारे भुवन में

कोई न जाने इस महासमर का क्या हाल होता

यदि इस संसार मे जीवित राधा का लाल होता

 

उस धनुर्धारी का जन्म हुआ था कभी न हारने को

वह दानवीर जन्म लिया था लोगों को तारने को

सृष्टि को दीन हीन करके वह धर्मवीर चला गया

वह शूरवीर वह कर्मवीर सारे सृष्टि को रुला गया

 

वह रथ का पहिया था, या था राधेय का काल

पार्थ का शर सर से निकला गिरा काटकर भाल

धू-धूकर जल उठा समर, जब राधेय का भाल गिरा

 मित्र ऋण चूका रणभूमि में पार्थ का काल गिरा

 

यह कैसी विडम्बना, भाई खुश है भाई को मारकर

वह मित्रनिष्ठ, वह सत्यनिष्ठ, अमर हो गया हारकर

हाय रे पार्थ, तू न जाने यथार्थ, यह क्या कर गया

आज रण में तेरा बाण तेरे भाई को ही मार गया

 

कुंती की यह कैसी विवशता जो हँस सके, न रो सके

कुरुक्षेत्र के आँगन में मरा सुत, माँ भला कैसे सो सके

माँ का मन सिसकता है और एक टिस-सी उठती है 

उस वीर की यश गाथा दसों दिशाओं में गूंजती है


राधेय, मित्र की खातिर रणभूमि में प्राण दिया

वह निश्छल, पवित्र मित्रता का पहचान दिया

वह कौन्तेय, जो शुद्र के नाम अनादर पाता रहा

क्षत्रिय समूह में रोज तिल-तिल कर मरता रहा

 

जिसके रगों में क्षत्रिय का रक्त और शुद्र का क्षीर था

वह जन्म से क्षत्रिय और प्रकृति से दानवीर था

वह राधेय, वह कौन्तेय, वह महावीर सुर्यपुत्र था

वह रश्मिरथी, वह महारथी, वह योद्धा विचित्र था

 

उस भुजबल का ललाट सूर्य-सा चमक रहा था

आज उसकी काया सुमन-सा महक रहा था

जब सुयोधन ने अपने मस्तक का ताज दिया

  जय-जयकार गूंजा जब अंगदेश का राज दिया

 

जिसने कवच-कुंडल सुरपति को दान दिया

माता कुंती को पांच पुत्रों का वरदान दिया

वह दानवीर जो श्रापित जीवन पलता रहा

जो जाति-गोत्र के नाम अनल में जलता रहा

 

जिसे भगवान कृष्ण का प्रलोभन भी न डिगा सका

इन्द्रप्रस्थ का मुकुट और सिंहासन भी न लुभा सका

वह धर्मज्ञ कृतज्ञता का महान कृति स्थापित कर गया

उसका जीवन सुकर्मों के यश और कृति से भर गया

 

आज वह वीर चला बैठकर मृत्युपति के रथ पर

जो जीवन भर चलता रहा अपने धर्म के पथ पर

जिसने लाख प्रलोभनों के बाद भी न रण छोड़ा

वह सुर्यपुत्र अपने कर्तव्यों से कभी न मुख मोड़ा

 

वसुधा वीर विहीन हो गई जब युद्ध में मरा कर्ण

मरकर भी अमर हो गया वह सत्य का रथी कर्ण

इस धरती के भाग्य में अब और न होगा कभी कर्ण

युगों युगों तक स्मरण करेगे तुम्हे हे दानवीर कर्ण

 

-एस. के कश्यप (कलम का दरोगा)

रचनाकार- मेरी उड़ान

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Wednesday, 25 November 2020

छठी मईया CHHATHI MAIYA



कार्तिक महिनवा में छठीया होवत हय
चारही दिन के परविया हे छठी मईया

पहिलका दिन नेहाय-खाय होवत हय
जुटल हय सकल समजवा हे छठी मईया

इहे दिन अरवा चौरा के भतवा बनत हय
संगवा में बुटवा के दलिया हे छठी मईया

अगस्ती के फूलवा के बचका बनत हय
संगवा में लउआ के तरकरिया हे छठी मईया

दुसरका दिन खरना शुरू होवत हय
भोरहि से परवैतिन सहले हे छठी मईया

मथवा पर कुईमा से पनिया ढोवत हय
इही से परसदिया बनतय हे छठी मईया

मईया संगे बहिनी परसदिया बनावत हय
जल्दी से बनाव परसदिया हे छठी मईया

संझिया के सभे परवैतिन खरना करत हय
धरलथिन तोहर धयनवा हे छठी मईया

परसदिया पावे ल सकल समाज जुटल हय
मिलतय तोहर अशीषवा हे छठी मईया

तिसरका दिन संझकी अरघिया होवत हय
एही दिनवा सबसे खास हे छठी मईया

भर माँग सेनुरा करले परवैतिन चलल हय
छठ घाट के रस्तावा हे छठी मईया

आज रस्तावा के धुरिया पाक होलय हय
रस्तावो सजल हय हे छठी मईया

डुबत सुरुज देव के अरघिया देवत हय
सुपवा लेले पनिया में खाड़ हे छठी मईया

सुपवा पर ठेकुआ संगे फलवा शोभत हय
दियवा जलत हय दिन-रात हे छठी मईया 

चौथा दिनवा भोरे के अरघिया होवत हय
यही छठ के अंतिम दिनवा हे छठी मईया

भोरहि-भोरहि सब छठी घटिया आवत हय
उगत सुरुज के देवे अरघिया हे छठी मईया

नंगे-नंगे गोर सभे छठी घटिया जायत हय
साथे मथवा पर दऊरवा हे छठी मईया

कन-कन पनिया में परवैतिन नेहायत हय
सुरुज देव के अरघिया ल हे छठी मईया

फीरों सभे परवैतिन सुपवा लेल खाड़ हय
उगत सुरुज के अरघिया हे छठी मईया

सकल समाज सुपवा पर दुधवा ढारत हय
तोहर अशीषवा लेवे ल हे छठी मईया

छठी मईया के पूजन के बादे पारण करत हय
सभे तोहर परसदिया पावत हे छठी मईया

बड़ी शुद्ध आऊ पाक परविया होवत हय
बड़ी नियमवा हय हे छठी मईया

परणवा से ही छठी परविया ख़त्म होवत हय
इही सुन्दर परम्परा हय हे छठी मईया

-एस के कश्यप (कलम का दरोगा)

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